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१३८ : पंचलिंगीप्रकरणम्
चाणक्क पंचतंतय वक्खाणंतो जीवाणं न खलु
कामंदयमाइरायनीइओ। अणुकंपओ होइ।। ७१।। ।
चाणक्य-पंचतन्त्रं
कामन्दक्यादिराजनीतिः। व्याख्यानयन् जीवानां न खलु अनुकम्पकः भवति।। ७१।।
चाणक्य, पंचतन्त्र, कामन्दक आदि की,
राजनीतियों
का
व्याख्यान।
भी जीवों के प्रति नहीं होता है,
निश्चय ही अनुकम्पा का आख्यान।। ७१।। ७१. चाणक्य प्रणीत, पंचतन्त्र प्रतिपादित अथवा कामन्दक प्रोक्त व अन्य भी राजनीति शास्त्रों (राजाओं के लिये राज्य-संचालन तथा अर्थादि उपाय प्रदर्शक शास्त्रों) का व्याख्यान करते हुवे (विचक्षण प्रतिभा संपन्न मुनि भी) प्राणियों के प्रति दयालु - अनुकम्पावान जीव रक्षक नहीं होता है। भावार्थ : राजनीति में छल, परस्पर मित्र अवरोध, वंचना, कूटयुद्धादि प्रयोग से अत्यधिक प्राणियों के हताहत होने से निष्करुणा ही द्योतित होती है, करुणा नहीं। अतः सर्वविरत जैन मुनियों, जो षट्जीवनिकाय के प्रणियों के रक्षक होते हैं, के लिये राजनीतिशास्त्रों की व्याख्या करना निषिद्ध बताया है।