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१५८ : पंचलिंगीप्रकरणम्
इह
पुण्णपावपभवा
सुहदुहसंवित्ति जंतुणो जम्हा।
ता
देवसुया
णाणं
सुहदुहसंवेयणं नत्थि ।। ८१।।
अस्मिन् पुण्यपापप्रभवा
सुखदुःखसंवित्तिः जन्तोः यस्मात् । तस्मात् देवसुता ज्ञानं
___ सुखदुःखसंवेदनं नास्ति।। ८१।। जीव प्राप्त करते सुख-दुःख,
पूण्य-पाप
प्रभाव
से
।
पर देवसुता
के ज्ञान में, '
सुख-दुःख संवेदन है ज्ञान स्वभाव से।। ८१।।
८१. इस लोक में जीव पुण्य-पाप (कर्म-प्रकृति) के प्रभाव से सुख-दुःख संवित्ति (अनुभव या भोग) को प्राप्त करते हैं, जिससे यह सिद्ध होता है कि इनसे पृथक भी कोई भोग करने वाला चेतन (आत्मा) है। देवसुता (बुद्धपुत्र या आलय विज्ञानवादी) के मत में सुख-दुःख का संवेदन (अनुभव) ही ज्ञान चेतना है और उससे पृथक किसी चेतन तत्त्व की सत्ता नहीं है।