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१६२ : पंचलिंगीप्रकरणम्
सोविय संकोयविकाससंगओ
भोगाययणेणवि तस्स हंदि
सोऽपि च संकोच - विकाससंगतः
भोगायतनेनापि तस्य हन्त
वह जीव भी संकोच - विकास युक्त,
अथवा अन्य शरीरों से भी,
देहवावगो
नियमा ।
जोगो समो इहरा ।। ८३ ।।
देहव्यापकः
नियमात् ।
योगः समः इतरथा।। ८३ ।।
और स्वदेहव्यापी है नियमात् ।
सुख-दुःख वेदन हो व्याख्यात् ।। ८३ ।। ८३. वह (आत्मा) भी संकोच - विकास से युक्त और नियम से स्वदेह व्यापी (आत्मा के स्वयं के शरीर प्रमाण ) है । उसका शरीर से संयोग सम्बन्ध है । अथवा ( यदि ऐसा न हो तो) आत्मा द्वारा स्वशरीरवत् परशरीर से भी सुख - दुःख वेदन का प्रसंग उपस्थित होता है, जब कि व्यवहार में ऐसा होता नहीं है क्योंकि व्यक्ति को अपने शरीर से ही सुख-दुःख का अनुभव होता है अन्य के शरीर से नहीं । ( अतः प्रति शरीर आत्मा भिन्न-भिन्न है ऐसा मानना चाहिये ।)