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१५६ : पंचलिंगीप्रकरणम्
संताणो
उ
अवत्थू
अचेअणाओ य चेयणमजुत्तं ।
जुज्जइ
सहकारितं
नूणमुवादाणरूवत्तो ।। ८०।।
सन्तानस्तु
अवस्तु
अचेतनाच्च
चेतनमयुक्त।
युज्यते
सहकारित्वं
नूनमुपादानरूपत्वः
।। ८० ।।
संतान अवस्तु होती है, और
अचेतन से चेतन नहीं सम्भव। उपादान होने पर ही तो,
निमित्त कारण होता सम्भव ।। ८०।।
८०. (प्रत्युत्तर में यदि बौद्ध यह कहें कि सन्तान प्रवाह से कर्ता
और भोक्ता का एक्य है तो यह उचित नहीं है क्योंकि) संतान अवस्तु (पदार्थ) है तथा अचेतन से चेतन की उत्पत्ति मानना युक्तिसंगत नहीं हैं क्योंकि उपादान होने पर ही सहकारी (निमित्त) कारण हो सकता है, अन्यथा नहीं।