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१५४ : पंचलिंगीप्रकरणम्
सन्ते ।
अकयागमकयनासो विण्णाणखणम्मि भावओ
उदयाणंतरनासे जेण कयं सो न भुत्त त्ति ।। ७६ ।।
अकृतागमकृतनाशौ विज्ञानक्षणे
भावतः
सन्ति ।
उदयानन्तरनाशे येन कृतं स न भोक्ता इति ।। ७६ ।।
अनकृत कर्म का आगम और कृत का नाश
उदय के बाद नष्ट कर्म जिसने किये
विज्ञानक्षण में होता है भावतः ।
वह नहीं भोगता है भोगतः ।। ७६ ।
७६. (बौद्धाभिमत के अनुसार) अकृत का आगम और कृत का नाश होता है (ऐसा मानने में परलोकानुष्ठान वृथा हो जाते हैं। क्योंकि शुभाशुभ कर्म के फल स्वरूप ही व्यक्ति को स्वर्ग-नरकादि की प्राप्ति होती है।) तथा विज्ञानक्षण में क्षणिक ज्ञान परमार्थतः रहता है तो भी उत्पत्ति के पश्चात् विनाश होने के कारण कर्म का कर्ता उसका भोक्ता नहीं होता है ( अर्थात् कर्म करने वाला और भोगने वाला पृथक-पृथक है, का प्रसंग उपस्थित होता है ।)
भावार्थ : बौद्धों के क्षणिकवाद को यदि सत्य मानते हैं तो अकृतागम व कृतनाश नामक दोष उत्पन्न होता है क्योंकि उत्पत्ति के पश्चात् ही उसका विनाश है तब जिसके द्वारा कर्म किया गया वह उसका भोक्ता नहीं बन सकता है ।