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१४२ : पंचलिंगीप्रकरणम्
तो अणुकंपपरेणं अविरयसम्मत्तणा उ पडिसेहो। पडिसिद्धाणं नियमा विहियाणं विहिओ कायव्वा ।। ७३।। तस्मादनुकम्पापरेण अविरतसम्यग्दृष्टिना तु प्रतिषेधः। प्रतिषिद्धानां नियमात् विहितानां विधिः कर्तव्यः।। ७३ ।।
तो अविरत सम्यग्दृष्टि भी करें नहीं हिंसक कर्म,
जो हैं जिनशासन में निषिद्ध। पर विहित कर्मों को अवश्य ही,
करें विधि से छोड़ कर्म प्रतिषिद्ध ।। ७३ ।। ७३. उपरोक्त कारणो से अनुकंपासंयुक्त अविरत सम्यग्दृष्टि के द्वारा शास्त्र निषिद्ध कार्यों को निश्चय से नहीं करना चाहिये और शास्त्रसम्मत कार्यों को विधिपूर्वक करना चाहिये। भावार्थ : (उपरोक्त कार्यों को करने से जीवघात होता है।) अतः अनुकम्पापरायण (दयालु) अविरत सम्यग्दृष्टि व्यक्ति को भी इन प्रतिषेध (निषेध किये गए) कार्यों को नहीं करना चाहिये तथा प्रतिषिद्ध (जिनशासन में कर्तव्य रूप से निषिद्ध - वापी, कूप, सरोवर निर्माण, एवं चाणक्य, कामन्दक, पंचतंत्र, आदि की राजनीति की व्याख्या करने, और ज्योतिष, वैद्यक, धातुवेद व धनुर्वेद आदि जैसे शास्त्रों के उपदेश जैसे) कार्यों को नहीं करना चाहिये। तथापि विहित (भव्य जीवों के कल्याण के लिये जिनालय निर्माण, जिनबिम्ब प्रतिष्ठा, पुस्तक लिखवाने, आदि जैसे) कार्यों का नियम से विधि पूर्वक पालन (अनुष्ठान करना चाहिये।