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१४६ : पंचलिंगीप्रकरणम्
गिहमागयाणमुच्चियं पडिसिद्धं
भगवया वि न हु सुत्ते। जंपुण पदत्थमसुमंतघायणं
तं न जुत्तं ति।। ७५ ।। गृहमागतानामुचितं प्रतिषिद्धं
भगवताऽपि नहि सूत्रे। यत् पुनः तदर्थमसुमताघातनं
__तन्न युक्तं इति।। ७५ ।। घर आए अतिथि को दान है व्यवहार,
न ही है यह भगवत्शास्त्रनिषिद्ध। किंतु फिर उनके लिये वसुमतादि,
__ जीवघात भी नहीं उचित्त ।। ७५ ।।
७५. गृहस्थ के घर में आए हुए (अपात्र भी) याचक को दान देना लोक-व्यवहार को सिद्ध करना है, तथा यह व्यवहार भगवान द्वारा सूत्र में निषिद्ध भी नहीं किया गया है। किंतु फिर भी ऐसे अतिथियों के स्वागत सत्कार के लिये पृथिवीकायिकादि जीवों का घात करना किसी भी दृष्टि से उचित नहीं कहा जा सकता है। अतः ऐसे याचकों को दान देने में यह ध्यान रखा जाना चाहिये कि ऐसा करने में किसी प्रकार के जीवों की हिंसा न हो।