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१४८ : पंचलिंगीप्रकरणम्
इह सत्तागाराई कहं न दिटुं जिणिंदधम्मम्मि। इहरा इट्ठापूयं न निसिद्धं हुज्जं समयम्मि ।। ७६ ।।
न
अस्मिन् इतरथा
सत्रागारादि कथं इष्टापूतं न निषिद्धं
दृष्टं जिनेन्द्रधर्मे?। भवेत् समये ।। ७६ ।।
इसीलिये जिनेन्द्रधर्म में नहीं दीखता दानशालाओं का विधान । अन्यथा नहीं करते इष्टापूर्त का, सिद्धान्त में निषेध भगवान ।। ७६ ।। ७६. इस जिनेन्द्रधर्म में (वीतरागमत में) सत्रागारादि (दानशालादि) क्यों नहीं दिखाई देती हैं (अर्थात् इनका विधान क्यों नहीं है?) अन्यथा इष्टापूर्त (आवश्यकता की पूर्ति करने वाले वापी, कूप, जलाशय, देवायतन, हवन, अन्नदानगृह, आदि) का सिद्धांत में निषेध नहीं होता। भावार्थ : यदि जिनमत में भी पृथ्विकायिकादि छःकाय की हिंसा करके भी दान करना चाहिये ऐसी स्वीकृति होती तो इस जिनेन्द्रधर्म में भी दानशाला आदि का विधान दिखाई क्यों नहीं देता है तथा इष्टापूर्त का भी शास्त्र में निषेध नहीं होता।
यहाँ ग्रंथकार एक युक्ति के माध्यम से यह सिद्ध करते हैं कि यद्यपि दान देना पुण्यकार्य है, किंतु वह पुण्योत्पादक तभी तक है जब तक वह दान सुपात्र को दिया जाता है। लोक व्यवहार साधने के लिये अपात्रदान का भी निषेध नहीं है किंतु इसके लिये किसी प्रकार की जीवहिंसा का निषेध है।