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१३२ : पंचलिंगीप्रकरणम्
वावीकूवतडागाइगोयरं
देइ
जमसंखविणासेणं न होइ
यतसंख्यविनाशेन न
न खलु
वापीकूपतडागादिगोचरं ददाति
भवति
न
वापी, कूप, तालादि खनन का सम्यग्दृष्टि,
थेवाणमणुकंपा ।। ६८।।
उवदेसं ।
नहीं
असंख्य विनाश से अल्प रक्षा में,
खलु उपदेशं ।
तोकानामनुकम्पा ।। ६८ ।।
देते कभी
उपदेश ।
नहीं अनुकम्पा का लवलेश।। ६८ ।।
६८. निश्चत रूप से ( सम्यग्दृष्टि ) जैन मुनि मनुष्य - पशु-प - पक्षी आदि के पीने के पानी के लिये कुंवे, बावड़ी, तालाब आदि खुदवाने का उपदेश कभी नहीं देते हैं क्योंकि इनमें असंख्य एकेन्द्रियादि जीवों का विनाश होकर अल्प ही मनुष्य-तिर्यंच जीवों की रक्षा होती है, तथा इस प्रकार कुछेक जीवों की रक्षार्थ अनेक जीवों की हत्या करने में कोई अनुकम्पा नहीं है ।