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१३४ : पंचलिंगीप्रकरणम्
सव्वाणुकंपगस्स उ दाणमसुद्धं गुणहेऊ
गुणहेऊ ता अपत्तंमि। वेइ अणुकंपसंजुत्तो।। ६६ ।।
सर्वानुकम्पकाय तु दानमशुद्धं गुणहेतुः
गुणहेतुः तस्याद् कथमपात्रे।
ब्रवीत्यनुकम्पासंयुक्तः।। ६६ ।।
सर्वविरत अनुकम्पक सुपात्र को
दिया दान तो है ही पुण्यकर। परिग्रहारम्भरत अब्रह्मचारी अपात्र को
दिया दान गुणहेतु हो क्योंकर? ।। ६६ ।।
६६. सर्वविरत (सब के प्रति अनुकम्पायुक्त) साधु के प्रति दिया गया दान गुणहेतु है - पुण्यानुबन्धी पुण्य का उत्पादक है। किंतु अनुकम्पावशात् भी परिग्रह और आरम्भरत अपात्र को दिया अशुद्ध दान गुणहेतु (पुण्यकारक) कैसे कहा जा सकता है ? अर्थात् नहीं है।
भावार्थ : इस गाथा में शास्त्रकार अनुकम्पा को पुण्य के परिप्रेक्ष्य में परिभाषित करते हुवे कहते हैं कि सुपात्र को दिया गया दान तो पुण्यकारक है ही किंतु कुपात्र को उस पर दया करके दिया गया दान भी पुण्यकारक नहीं हो सकता है। सुपात्र और कुपात्र का स्पष्टीकरण देते हुए वे कहते हैं कि सर्वजीवों पर अनुकंपापरायण सर्वविरत साधु सुपात्र है तथा आरम्भ-परिग्रह युक्त हिंसक कार्यों में रत याचक अपात्र है।