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१२६ : पंचलिंगीप्रकरणम्
छद्दरिसणतक्कविआ कुतित्थिसिद्धंतं जाणया धणियं । ता ताण कारणे सव्वमेव इह होइ लेहणीयं ।। ६४।।
षड्दर्शन-तर्क-विदः कुतीर्थिकसिद्धान्तज्ञायकाः धणितम् । तत् तेषां कारणे सर्वमेव इह भवति लेखनीयम् ।। ६४।।
षड्दर्शन-तर्क के ज्ञाता अन्यदर्शन
सिद्धान्त ज्ञान से समृद्ध ।
मुनियों के ज्ञान में जो स्व-परमत
उनका भी लेखन है यहाँ उपयुक्त।। ६४।।
६४. षड्दर्शन (सांख्य-योग, न्याय-वैशेषिक, व मीमांसा-वेदान्त) का ज्ञाता, तर्कविद् (वाद-विाद में कुशल ज्ञानी) और (बौद्ध, चार्वाक, द्विजादि के श्रुति-स्मृति-पुराणादि में वर्णित) सिद्धान्तों का अतिशय रूप से जानने वाले बने, उस कारण से उन (जैन साधुओं) के निमित्त यहाँ (इस पुस्तक में) सभी (स्व-परमत) लिखने योग्य हैं। अर्थात् परमत निरसन व स्वमत की स्थापना के लिये दोनों का सम्यक् ज्ञान आवश्यक है अतः इसी को ध्यान में रखते हुए स्वमत के साथ अन्य मतावलम्बियों के मतों का भी निरूपण करना चाहिये।
भावार्थ : यहाँ शास्त्रकार जैन मुनियों के लिये स्वमत के साथ परमत का भी सम्यक् ज्ञान अर्जित करने पर बल देते हुए कहते हैं कि ऐसा परमत निरसन व स्वमत स्थापना के लिये आवश्यक है।