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१२२ : पंचलिंगीप्रकरणम्
जिणवयणामयसुइसंगमेण उवलद्ध वत्थुसब्भावं। कुस्सुइनियत्तभावा भयंति जिणधम्ममेगे उ ।। ६२।।
जिनवचनामृतश्रुतिसंगमेन उपलभ्य वस्तु सद्भावम् । कुश्रुतिनिवृत्तभावा भजन्ते जिनधर्ममेकस्तु।। ६२ ।।
जिनवचनामृत रूपी आगम का प्रतिपादन जो करते हैं
कर सम्यक् तत्त्व परीक्षा। कुमत के प्रति निवृत्तिभाव और
स्वसिद्धान्तों की सुंदर समीक्षा ।। ६२ ।। ६२. जिनवचनरूपी अमृत (अजर अमर - सिद्धत्व प्राप्ति का हेतुभूत रसायन) की प्राप्ति श्रुति (आगमज्ञान) के संगम (अर्थात् सद्गुरु, जो ज्ञेय और अज्ञेय का भेद जानते हुवे यथार्थ का उपदेश देते हैं, के मेल) से होती है जिससे वस्तु के सद्भाव का (अर्थात् जीवादि तत्त्वों का यथार्थ) ज्ञान होता है। (ऐसे उपदेश को सुनकर) लोग कुश्रुति (परस्पर विरोधी हिंसादि का उपदेश देने वाले के मिथ्याज्ञान) से निवृत्तभाव होकर एकमात्र जिनधर्म को स्वीकार करते
हैं।
भावार्थ : इस गाथा में शास्त्रकार सम्यग्ज्ञान की महत्ता को प्रतिपादित करते हैं तथा कुतीर्थियों के मिथ्या उपदेशों के प्रति भी सावधानी व उपेक्षा का भाव रखने की आवश्यकता पर बल देते हैं। (स्वसमय ज्ञान के साथ परसमय अज्ञेयता का निरूपण भी आवश्यक है।)