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११४ : पंचलिंगीप्रकरणम्
पुढवाइयाण जइ वि हु
होइ विणासो जिणालयाहिंतो। तव्विसयावि सुदिट्ठिस्स
नियमओ अत्थि अणुकम्पा ।। ५८ ।।
पृथिव्यादीनाम् यद्यपि भवत्येव विनाशः जिनालयात् । तद्विषयाऽपि सुदृष्टेः ननु' नियमतोऽस्ति अनुकम्पा।। ५८ ।।
पृथ्वीकायादिक जीवों की हिंसा जो जिनालय के निमित्त होती है। समदृष्टि को उनके प्रति भी, नियम से, अनुकम्पा ही होती है।। ५८ ।।
५८. यद्यपि जिनालय (जिनमन्दिर) के निर्माणकार्य में पृथ्वीकायिकादि (अप्कायिक, वायुकायिक, तेजस्कायिक, वनस्पतिकायिक व कई छोटे-बड़े त्रस्कायिक) जीवों का विनाश होता ही है तथापि उनके प्रति सम्यग्दृष्टि आत्मा को निश्चय से अनुकम्पा (दया) का भाव होता है।
भावार्थ : जिनालय निर्माण में पृथ्वीकायिकादि जीवों का विनाश तो अवश्यंभावी है। फिर भी सम्यग्दृष्टि जीव इस विनाश को सांसारिक जीवों के दीर्घकालिक कल्याण व मुक्ति के परिप्रेक्ष्य में देखकर उस हिंसा में प्रवृत्त होता है किंतु उसके हृदय में मंदिर निर्माणकार्य में हताहत होने वाले जीवों के प्रति गहन अनुकम्पा का भाव रहता ही
हैं।
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'ननु' का प्रयोग छन्दपूर्ति हेतु।