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११२ : पंचलिंगीप्रकरणम्
कारेमि बिंबममलं दटुं गुणरागिणो जओ बोहिं। सज्जो लभेज्ज अन्ने पूयाइसयं च द₹णं ।। ५७ ।।
कारयामि बिम्बममलं दृष्ट्वा गुणरागिणो यतः बोधिम् । सद्यः लभेरन् अन्ये पूजातिशयं च दृष्ट्वा ।। ५७।। और बनवाऊंगा निर्मल जिन-बिम्ब,
शीघ्र पाएँ गुणानुरागी जन बोधि जिसका दर्शन कर। अन्य भी पाएँ बोध
पूजातिशय का अवलोकन कर ।। ५७ ।।
५७. वह सोचता है, (उपरोक्त जिनालय में) मैं निर्मल (अत्यंत स्वच्छ, शुद्ध, उत्कृष्टतम जिन) बिम्ब (भगवान जिनेश्वर की भव्यातिभव्य प्रतिमा) बनवाऊंगा (स्थापित या प्रतिष्ठित करवाऊंगा) जिसके दर्शन से ही गुणानुरागी जन सम्यक्त्व को प्राप्त करेंगे तथा अन्य जन भी पूजा का अतिशय - भव्यता देखकर सम्यग्दृष्टि प्राप्त करेंगे।
भावार्थ : जिनालय का महत्त्व उसमें प्रतिष्ठित जिनप्रतिमा के कारण है, जिनप्रतिमा दर्शन से जो विशुद्ध भाव जागृत होते हैं वे ही सम्यग्दर्शन का बीजवपन करने में समर्थ होते हैं, अतः वह अनुकम्पाशील सम्यग्दृष्टि व्यक्ति सोचता है कि मेरे द्वारा निर्मित जिन मंदिर में मैं एक अति सुंदर जिनप्रतिमा स्थापित कराऊंगा जिसका दर्शन करके भव्यजन सम्यग्दर्शन को प्राप्त करेंगे तथा अंततोगत्वा संसारमुक्त होंगे।