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११० : पंचलिंगीप्रकरणम्
नायज्जियवित्तेणं कारेमि जिणाालयं महारम्भ। तहसणाउ गुणरागिणो जंतुणो वीयलाभुत्ति ।। ५६ ।।
न्यायार्जितवित्तेन कारयामि तद्दर्शनात् गुणरागिणः जन्तोः
जिनालयं महारम्यम्। बीजलाभरिति।। ५६ ।।
न्यायार्जित धन से बनवाऊंगा जिनालय अति रम्य। जिसके दर्शन से गुणरागी जीव सम्यक्त्वबीज से होंगे धन्य ।। ५६ ।।
५६. (संसारमुक्ति का एकमात्र उपाय जिनधर्म है ऐसा जानकर सम्यग्दृष्टि आत्मा सोचता है कि मैं) अपने न्यायोपार्जित धन से अति सुन्दर (अत्यधिक मनमोहक) जिनालय (जिनमन्दिर) का निर्माण कराऊंगा जिसके दर्शनमात्र से ही गुणानुरागी जनों को सम्यग्दर्शन का बीजलाभ होता है अर्थात् उनके हृदय में सम्यग्दर्शन का अंकुर प्रस्फुटित होता है।
भावार्थ : वह (भाव अनुकम्पापरक सम्यग्दृष्टि जीव) सोचता है कि (यदि जिनोपदिष्ट सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र की त्रिवेणी ही भवसागर से पार करने वाली है तो उसके लिये ऐसे उपाय किये जाने चाहिये जिनसे लोगों के मन में ये भाव पैदा हों, अतः) मैं (लोगों को सम्यग्दृष्टि बनाने के लिये) अपने न्यायपूर्वक अर्जित धन से अत्यंत मनोहारी जिनालय का निर्माण करवाऊंगा, जिसके दर्शनमात्र से ही गुणानुरागी लोगों में सम्यक्त्व का उदय होता है।