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१०८ : पंचलिंगीप्रकरणम्
संसारदुःखमोक्खणहेउं जिणधम्म
अन्तरा
नान्नो।
मिच्छत्तुदयसंगयजणाणं स य
परिणमिज्जइ कहं तु।। ५५ ।।
संसारदुःखमोक्षणहेतुः जिनधर्ममन्तरेण नान्यः। मिथ्यात्वोदयसंगतजनानां स च परिणमेत् कथं नु।। ५५ ।।
अन्य।
जिन-धर्म ही है संसार के दुःखों से मुक्ति का उपाय,
नहीं कोई अन्य। मिथ्यात्वोदय से आसक्त जन कैसे हों परिणत,
अधर्म को समझें जो धर्म-धन्य ।। ५५ ।।
५४. संसार के दुःखों से मुक्त होने के लिये जिनधर्म (जिनेश्वरोक्त धर्म) के अतिरिक्त अन्य कोई मार्ग (उपाय) नहीं है और मिथ्यात्त्व के उदय से ग्रस्त लोग उसे कैसे नमन करें? अर्थात् ऐसी मिथ्यात्त्वग्रस्त आत्माओं को जिनधर्म श्रद्धायोग्य कैसे बन सकता है?
भावार्थ : तीर्थंकर जिनेश्वर प्रणीत मार्ग सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र रूपी मुक्ति के साधन से युक्त होने से संसार निस्तारण में समर्थ है कितु मिथ्यात्व के उदय से आसक्त लोगों की उस धर्म में परिणति कैसे हो सकती है, वे तो अधर्म को ही धर्म मानते हैं।