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१०६ : पंचलिंगीप्रकरणम्
निययसहावेण हया तावदभव्वा ण मोइउं सक्का। भवदुक्खाओ इमे पुण भव्वा परिमोयणीया उ ।। ५४।।
निजकस्वभावेन हताः तावदभव्याः न मोचयितुं शक्याः। भवदुःखात् इमे पुनर्भव्याः परिमोचनीयास्तु ।। ५४ ।। वे कर नहीं सकते मुक्त अभव्य जीवों को,
जो हैं निजस्वभाव से दूषित। किंतु भवदुःखों से संभव है मुक्ति,
उन भव्यों की जो होते नहीं प्रदूषित।। ५४ ।।
20. मुक्तिगमन-अयोग्यता रूपी अपने (दूषित) निजस्वभाव से हत (मारे गए) अभव्य जीवों को तो भवदुःखों से मुक्त करना संभव नहीं है, किंतु मुक्तिगमन-योग्यता वाले उन भव्य जीवों को मुक्त करना संभव है, जो मोचनीय (मुक्ति दिलाने योग्य) हैं। अतः उन्हें सांसारिक दुःखों से मुक्ति दिलाने के लिये अवश्य प्रयत्न करना चाहिये।
भावार्थ : इस गाथा में शास्त्रकार अभव्यों व भव्यों में अंतर स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि अभव्य जीव स्वभावतः अमुक्तिगामी होते हैं अतः उन्हें दुःखमुक्त नहीं किया जा सकता है किंतु भव्य जीवों को त्राण देने का प्रयत्न करना आवश्यक हैं। (व्यवहार में अभव्यों व भव्यों की पहचान करना असंभव होने से) सम्यग्दृष्टि जीव को अपने अनुकम्पायुक्त स्वभाव के कारण सबका दुःख दूर करने का प्रयत्न करना चाहिये।