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८८ : पंचलिंगीप्रकरणम्
जाई दुक्खाई।
ता देवमणुयनारयतिरिक्खजोणिसु भावीभवभावुगाई हियए वियरंति ताण सया ।। ४५ ।।
तस्मात् देवमनुजनारकतिर्यग्योनिषु
भाविभवभावुकानि
यानि
हृदये
वर्तमान की भाँति ही विचारता,
अतः ये दुःख, जो होंगे भावी देव- मनुज
दुःखानि ।
विचरन्ति तानि सदा ।। ४५ ।
नारक-1 5- तिर्यक् योनियों में मौजूद ।
उसके चित्त मे रहता सदा उनका वजूद ।। ४५ ।।
४५.
उस कारण से सम्यग्दृष्टि जीव आगामी भवों में (भविष्यत् काल की जन्म परम्परा) में उत्पन्न होने वाले देव-मनुष्य-तिर्यंच और नारक योनियों में उत्पन्न जो दुःख हो सकते हैं, वे उसके हृदय में सदा विचरण करते हैं अर्थात् वह उन्हें सदा इस प्रकार से हृदय में रखता है ( उनका स्मरण करता है) जैसे कि वह उन दुःखो का अनुभव वर्तमान में कर रहा हो । यहाॅ शास्त्रकार का आशय यह प्रतीत होता है कि उन भविष्य में सम्भाव्य दुःखों के सतत स्मरण से व्यक्ति के मन में संसार के प्रति वितृष्णा के भाव उदित होते हैं तथा वह निर्वेद का साक्षात्कार करता है ।