________________
६२ : पंचलिंगीप्रकरणम्
सव्वमाभाइ।
बालोहधूलिगिहिरमणसंनिभं तस्स देविंद-चक्कवट्टणाइ-पयमद्ध्यमवस्सं
।। ४७।।
तस्य
सर्वमाभाति।
बालोघधूलिगृहरमणसंनिभं देवेन्द्र-चक्रवर्तित्वादिपदमध्रुवमवश्यं
।। ४७।।
बालकों के धूलिगृह के खेल सदृश,
. उसके मन में सतत सकल होता आभास । देवेन्द्र-चक्रवर्त्यादि अनित्य पदों का,
निश्चय ही होता प्रतिभास ।। ४७।।
४७. सम्यग्दृष्टि जीव के मानस में देवेन्द्र, चक्रवर्ती आदि पदों की अनित्यता का ज्ञान भी बालकों के धूलिगृह (रत के घरौंदे) के खेल की भॉति ही निरन्तर प्रतिभासित होता रहता है।
भावार्थ : इस गाथा में संसार की अनित्यता का प्रतिपादन किया गया है। संसार में सब-कुछ अनित्य है जो कभी न कभी नष्ट होना ही है। अनत्यता की पराकाष्ठा के रूप में यहाँ सांसारिक पदों में सर्वोच्च देवेन्द्र, चक्रवर्ती, आदि (बलदेव, वासुदेव) का उदाहरण दिया गया है। शास्त्रकार कहते हैं कि जब ऐसे सर्वोच्च पद भी अनित्य हैं तो अन्य कमतर प्राणियों की तो बिसात ही क्या? सम्यग्दृष्टि जीव संसार के इस अनित्यताबोध से सतत भावित रहता है तथा इससे निर्वेद को प्राप्त करता है।