________________
६६ : पंचलिंगीप्रकरणम्
ते जत्थ जत्थ सावज्जकज्जमब्भुज्जमं समुव्वहइ। सो तत्थ तत्थ तम्मइ विरइ महन्तो अपावन्तो।। ४६।।
तस्मात् यत्र यत्र सावद्यकार्ये अभ्युद्यमं समुद्वहति। स तत्र तत्र ताम्यति विरति महन्तोऽऽप्राप्नुवन् ।। ४६।।
अतः जहाँ-जहाँ अविरत जीव,
हिंसक कार्यों में करता है प्रवृत्ति। वहाँ वहाँ वह खेदित होता है और,
अप्राप्त ही रहती है उसे विरति।। ४६ ।।
४६. इस कारण से जीव इच्छा होते हुवे भी विरति को न प्राप्त करता हुआ जहाँ-जहाँ सावद्यकार्य (हिंसादि पापक व्यापार) में प्रवृत्ति करता है वहाँ-वहाँ खेद को प्राप्त होता है, महादुःखी होता है।
भावार्थ : सर्वविरति की महिमा का प्रतिपादन करने के उद्देश्य से शास्त्रकार यहाँ हिंसक या सावध कर्मों में प्रवृत्ति की चर्चा करते हैं तथा कहते हैं कि अविरति के कारण जीव जहाँ-जहाँ भी सावध अर्थात् हिंसक कर्मों मे प्रवृत्ति करता है वहाँ वहाँ उसे खेद के अतिरिक्त कुछ भी प्राप्त नहीं होता है। उन पापक व्यापारों से वह अंततः महान दुःख ही पाता है। (अतः प्रत्येक आत्मार्थी के लिये यह आवश्यक है कि वह इस तथ्य को आत्मसात करे और सावद्यकर्म से विरत हो।