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६८ : पंचलिंगीप्रकरणम्
मन्नइ
जयम्मि धन्ने सुसाहुणो
अन्नमणाहमसरणं जयं सुदिट्ठी
मन्यते जगति धन्यान्, सुसाधून् अन्यमनाथमशरणं जगत्, सुदृष्टिः
चत्तभवदुहासंगे ।
विचिन्तेइ ।। ५० ॥
त्यक्तभवदुःखासङ्गान् ।
विचिन्तयति ।। ५० ।।
धन्य मानता सम्यग्दृष्टि, भव - दुःख - संबन्धहीन सुसाधुओं को तथा । अनाथ-अशरण अन्य जगजीव का, चिंतन करता वह सदा ।। ५० ।।
५०. सुदृष्टि ( सम्यग्दृष्टि ) जीव संसार में सांसारिक क्लेष संबन्धों को छोड़ चुके अतः खेद से रहित सुसाधुओं को धन्य मानता है । साधुओं से भिन्न जगत् के जीवों को राजा आदि नाथों से युक्त होने पर भी उनके द्वारा भव - दुःख से त्राण देने में अक्षम होने से अनाथ व अशरणभूत मानता है ।
भावार्थ : पिछली गाथा में प्रतिपादित सर्वविरति के महत्त्व को और अधिक रेखांकित करते हुए शास्त्रकार कहते हैं कि सम्यग्दृष्टि जीव तो केवल उन्हीं सुसाधुओं को धन्य मानता है जो भवासक्ति को त्यागकर सांसारिक व्यापार से विरत हो चुके हैं तथा सर्वथा आत्मार्थ की गवेषणा में रत हैं। संसार के ऐसे अन्य जीवों को तो वह अनाथ व अशरणभूत मानता है जो भवासक्ति के कारण अनेक प्रकार के दुःख और क्लेश को प्राप्त होते हैं । ऐसा विचार करता हुआ वह निर्वेद को प्राप्त करता है ।