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६४ : पंचलिंगीप्रकरणम्
इय सव्वत्थ असरणं, अणंतदुहभायणंमि संसारे। अप्पणं मन्नन्तो, निच्चुब्विग्गो महादुक्खं ।। ४८।।
इति सर्वत्र अशरणमनन्तदुःखभाजने संसारे। आत्मानं मन्यमानः नित्योद्विग्नः महादुःखम् ।। ४८।।
अतः सभी सर्वत्र अशरण,
और अनन्त दुःख-कारण जग में । जो इनको अपना माने सो रहता,
नित्य-उद्विग्न महादुःखी मन में।। ४८।।
४८. इस कारण से सम्यग्दृष्टि व्यक्ति इन सभी - सांसारिक वस्तुओं तथा पदों में निहित धन-संपदा और शक्ति-संपन्नता - को अशरणभूत (जो किसी की मृत्यु से रक्षा नहीं कर सकते हैं) व अनन्त दुःखों का कारणभूत मानता हुआ सदा-सर्वदा उद्विग्न और महादुःखी रहता है।
अथवा : अतः सम्यग्दृष्टि आत्मा अनंत दुःखों के स्थान रूप इस संसार में अपने आप को शरण रहित मानता हुआ नित्य उद्विग्न रहता है एवं महान दुःख का अनुभव करता है।
भावार्थ : इस गाथा में शास्त्रकार संसार व सांसारिक वैभवादि के प्रति अशरण भावना का प्रतिपादन करते हैं तथा सम्यग्दृष्टि आत्मा के द्वारा उनमें आसक्ति त्याग कर निर्वेद का अनुभव करने की बात करते हैं।