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६० : पंचलिंगीप्रकरणम्
तो च्चिय संलत्तं अप्पडिविरओ सुदिट्ठीजं दुक्खं । वेयइ तं न अन्नो संसारी माणसं भयइ ।। ४६ ।।
अतएव संलपितं अप्रतिविरतः
वेदयते तत्
सुदृष्टिः यत्
नान्यः
दुःखं ।
संसारी मानसं भजते ।। ४६ ।।
अविरत सम्यग्दृष्टि अपने मन में, जिस दुःख का करता वेदन । आगम कहते वैसा अनुभव अन्य नहीं करता चेतन ।। ४६ ।।
४६. इसलिये अविरत सम्यग्दृष्टि जीव जिस दुःख का वेदन ( अनुभव ) करता है, वेसा अनुभव कोई भी अन्य सांसारिक प्राणी नहीं कर सकता है । ऐसा आगम कहते हैं ।
भावार्थ : इस गाथा में शास्त्रकार पिछली गाथाओं में प्रतिपादित तथ्य को पुष्ट करते हुए कहते हैं कि सम्यग्दृष्टि जीव जिसे अनिष्ट संयोग, इष्ट वियोग आदि सांसारिक दुःखें का अनुभव हो चुका है तथा जो भविष्य में भी चतुर्गतियों में होने वाले दुःखों का चिंतन करता है उसका दुःख असीम है क्यों कि वह जानता है कि अविरत होने के कारण वह उन सभी कर्मों का बंध कर रहा है तथा अंततोगत्वा वे उसे भोगने ही होंगे। वैसे दुःख का अनुभव अन्य कोई भी सांसारिक प्राणी करने में असमर्थ होता है ।