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८० : पंचलिंगीप्रकरणम्
अप्पियसमागमुब्मवदुह-मुग्गरदलिय-माणसो जीवो। पावइ जं दुहं तं जिणाउ को वागरेउ अन्नो? ।। ४१।।
अप्रियसमागमोद्भवदुःखमुद्गरदलितमानसः
जीवः। प्राप्नोति यद् दुःखं तत् जिनात् कः व्याकुर्यादन्यः? ।। ४१।।
अप्रियसमागम
से
उत्पन्न,
दुःख-मुद्गर से दलित-मन जीव। प्राप्त करे जो दुःख उसका, जिनेश्वर बिन
कौन करे वर्णन सजीव? ।।४१।।
४१. अप्रिय के समागम से उत्पन्न दुःख रूपी मुद्गर की चोट से (हृदयशिला के स्फोट - टुकड़े-टुकड़े होने से) दलितमन (भग्न चित्त) वाला जीव जिस व्यथा या पीड़ा का अनुभव करता है, उसको जिनेश्वरदेव के अतिरिक्त कौन कहने (बताने या वर्णन करने) में समर्थ है? अर्थात् कोई नहीं।
दुःख के अनेक कारणों में से एक है अप्रिय समागम। कपूत, कुनार, शत्रु व दुष्टों के अप्रिय संबन्धों से उत्पन्न दुःखों की चोट से चकनाचूर व पराजित मानसिक स्थिति में जीव जिस दारुण दुःख का अनुभव करता है, वह इतना विकट होता है कि उसका वास्तविक वर्णन भी सर्वज्ञ जिनेश्वरदेव के अतिरिक्त अन्य किसी के लिये करना असंभव होता है।