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५० : पंचलिंगीप्रकरणम्
धी धी मज्झ अणज्जस्स इंदियत्थेसु संपउत्तस्स। परमत्थवेरिएसु वि दाराइसु गाढरत्तस्स ।। २६ ।।
धिग् धिग् मम अनार्यस्य इन्द्रियार्थेषु संप्रयुक्तस्य । परमार्थवैरिष्वपि दारादिषु गाढरक्तस्य ।। २६ ।। धिक्कार है, धिक्कार मुझ अज्ञानी-अनार्य को,
जो इंद्रियसुख में ही रहता निमग्न । जो परमार्थ के वैरी हैं परम,
उन पुत्रकलत्रादि में अतिआसक्त अतिमग्न।। २६ ।।
२६. इंद्रियों के विषयों में अतिआसक्त रहने वाले, व परमार्थ (आत्मकल्याण) के परम वैरी ऐसे स्त्री-पुत्र-परिवारादि में ही तीव्र अनुरक्ति (आसक्ति) रखने वाले मुझ अनार्य को धिक्कार है! धिक्कार है!! बारंबार धिक्कार है।
इस गाथा में शास्त्रकार आत्मकल्याण में बाधक तत्त्वों का उल्लेख करते हुए कहते हैं कि इंद्रियसुखोत्पादक सांसारिक विषयों व भोग-विलास के साधनों के प्रति अत्यंत आसक्ति, उनकी तीव्र लालसा व उन्हीं में ध्यान लगाए रहना एक प्रकार की बाधा है; दूसरी बाधा है पत्नी-पुत्र, घर-परिवार, नाते-रिश्ते, आदि के प्रति अत्यंत आसक्ति का भाव। ये दोनों प्रकार की बाधाएँ व्यक्ति को संसार की असारता का बोध हो जाने के उपरांत भी विरक्त होकर आत्मकल्याण के मार्ग पर अग्रसर नहीं होने देती हैं।