________________
५६ : पंचलिंगीप्रकरणम्
पाणच्चयेवि न कुणइ जत्तो
जिणसासणस्स उड्डाहो । गुणिणो बहुमाणपरो
दाराइसु सिढिलपडिबन्धो।। २६ ।।
प्राणात्ययेऽपि न करोति यतः जिनशासनस्य उड्डाहः। गुणिषु बहुमानपरो दारादिषु शिथिलप्रतिबन्धः।। २६ ।।
प्राण त्याग करके भी न करता, जिन-शासन को जो गन्दा। गुणियों का बहुमान बहुत और, स्वजनस्नेह हो अति मन्दा ।। २६ ।।
२६. अतः संविग्न (संवेग लक्षण वाला) साधक प्राण त्याग भी करना पड़े तो भी अर्थात् स्वयं के जीवन की बलि देकर भी अपने आचरण से जिन-शासन को मलिन नहीं करता है। वह ज्ञानादि गुणों से भूषित गुणियों का अत्यन्त बहुमान करता है तथा पुत्र, कलत्रादि स्वजनों के प्रति अत्यल्प राग-भाव रखता है।
संवेगवान साधक के गुणों का बखान करते हुए शास्त्रकार जिन-शासन के प्रति उसकी निष्ठा को रंखांकित करते हैं और कहते हैं कि ऐसा साधक अपना जीवन उत्सर्ग करके भी जिन-शासन की शान में ऑच नहीं आने देता है तथा वह ऐसा अनासक्त गुणानुरागी होता है कि स्वजनो के प्रति भी अत्यल्प रागभाव रखता है तथा गुणियों का अहोभाव पूर्वक बहुमान करता है।