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६६ : पंचलिंगीप्रकरणम्
बहुसो
अणाइसंसारसायरे
नरतिरियदुक्खाइं ।
पत्ताई
कम्मवसवत्तिजन्तुणा
___ नत्थि
संदेहो।। ३४।।
बहुशः अनादिसंसारसागरे प्राप्तानि कर्मवशवर्तिजन्तुना नास्ति
नरकतिर्यगदुःखानि। सन्देहः ।। ३४ ।।
बहुत बार अनादि संसार-सागर में, नरक-तिर्यंच गतियों में पड़ता । निस्सन्देह कर्मवशात्, जीव दुःखों में सड़ता ।। ३४ ।।
३४. कर्मों के वशीभूत हुए इस जीव नें अनेकबार अनादि संसार-सागर में नरक और तिर्यग्गति से संबंधित दुःख प्राप्त किये हैं। इसमें कोई संदेह नहीं है।
भावार्थ : यहाँ शास्त्रकार भव, जीव व कर्म के अनादि होने के फलितार्थ की ओर इंगित करते हुए कहते हैं कि भव (संसार), जीव
और कर्म इन तीनों के अनादि होने से अनन्त बार अनादि संसारसागर में अनादि कर्म-संयोगों के वशवर्ती अनादि जीवों ने निस्संदेह नरक और तिर्यंच गतियों के दुःखों को पाया है। किंचित् सुखकारी होने के कारण मनुष्य और देवगतियों को छोड़कर जीव ने नरक और तिर्यंच गतियों के दुःखों को भी अनेक बार भोगा है।