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६४ : पंचलिंगीप्रकरणम्
तृतीयलिंग : निर्वेद
सम्मद्दिट्ठी जीवो भवगहणदुहाणं सुदु निविण्णो चिंतेइ । अणाइभवो अणाइजीवो तहा कम्मं ।। ३३ ।।
सम्यग्दृष्टिः जीवः भवगहनदुःखेभ्यः सुष्टु निर्विण्णः चिन्तयति। अनादि-भवः अनादि - जीवः तथा कर्म ।। ३३।
सम्यग्दृष्टि जीव सोचे उद्विग्न, गहन दुःख है भव अनादि I अनादि भव में जीव अनादि, वैसा ही है कर्म अनादि ।। ३३ ।।
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३३. उपशम व संवेग सहित सम्यग्दृष्टि जीव संसार (अटवी) के गहन दुःखों से अत्यंत उद्विग्न होता है। वह मन से विचार करता है कि यह संसार ‘अनादि' है । ( " यहाँ से प्रारम्भ कर उत्पन्न हुवा ” ऐसे प्रारम्भ से रहित है अतः अनादि है), जीव या आत्मा भी संतानवृत्तितया 'अनादि' है; और जीव के ( मिथ्यात्वादि कारणों से जो किये जाते हैं ऐसे) कर्म भी 'अनादि' हैं ।
तृतीय सम्यक्त्वलिंग 'निर्वेद' पर प्रथम गाथा में ही शास्त्रकार कर्ममल से मलिन संसार की भयावहता का चित्रण करते हुए स्पष्ट रूप से कहते हैं कि इस अनादि संसार में अनादि कर्मसंयोग युक्त जीव भव दुःखों से त्रस्त सम्यग्दृष्टि जीव इससे उद्विग्न होकर इससे छुटकारा पाने के उपायों पर विचार करता है ।