________________
६२ : पंचलिंगीप्रकरणम्
इइ किरियाए इइ भावसंगओ
___णिच्छएण सम्मत्ती । भावो णज्जइ पच्छाणुतावओ
तासु किरियासु ।। ३२।।
इति क्रियया इति भावसङ्गतः निश्चयेन सम्यक्त्ववान् । भावः ज्ञायते पश्चादनुतापात् तासु क्रियासु ।। ३२ ।।
इन क्रियाओं और इन भावों से निश्चित ही वह होता है सम्यक्त्वी। उन-उन क्रियाओं में अनुताप से जाना जाता है वह संवेगी ।। ३२ ।।
३२. पूर्वोक्त क्रियाओं (देव-गुरु की भक्ति, आदि) एवं सर्वविरति चारित्र ग्रहण करने के भावों (परिणामों) से निश्चित रूप से वह सम्यग्दृष्टि है तथा उन क्रियाओं (पापक क्रियाओं) में पश्चाताप करने से (उसमें) संवेग का होना ज्ञात होता है या जाना जाता है।
संवेग लक्षण के निरूपण की इस अंतिम गाथा में शास्त्रकार स्पष्ट रूप से कहते हैं कि केवल उन्हीं व्यक्तियों या साधकों में संवेग रूपी सम्यक्त्वलिंग का होना जाना जाता या माना जा सकता है जो देव-गुरु के प्रति भक्तिभाव से ओत-प्रोत हैं, दुःखमय असार संसार से मुक्त होने के लिये जो सर्वविरति चारित्र ग्रहण करने की भावना से आप्लावित हैं, तथा पापक क्रियाओं के लिये पश्चाताप करते हैं।
(इति द्वितीयलिंगम्)