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५४ : पंचलिंगीप्रकरणम्
चारित्तपक्खवाया, अप्पडिविरओ बन्धइ
सुरेसु । संविग्गो विरओ इच्चुब्विय
संविग्गो पूयाण विघाओ।। २८ ।।
चारित्रपक्षपातात् अप्रतिविरतोऽपि बध्नाति सुरेषु । संविघ्नो विरतः इत्येव संविग्नो पूज्यानां विघ्नात् ।। २८ ।।
संवेग प्रकट होता है तब जब साधक विरत हो पूज्याशातना से। चारित्र पक्षपात से भी होता है देखो अप्रतिविरत को देवायु बंध।।२८ ।।
२८. एकमात्र मोक्ष की इच्छावाला व्यक्ति जब पूज्यों की आशातना से विरत होता है तब संवेग लक्षण प्रकट होता है। इसलिये, ऐसा व्यक्ति चारित्र के पक्षपात से अप्रतिविरत होने के बावजूद देवायु का बंध करता है।
इस गाथा में शास्त्रकार ऐसे व्यक्ति की चर्चा करते हैं जो किसी कारण से अनासक्ति को प्राप्त नहीं कर पाता है फिर भी चारित्र ग्रहणकर उसका निरतिचार पालन करता है। ऐसा करने से वह पूज्यों की आशातना से विरत होकर मोक्षप्राप्ति की इच्छावाला बनता है। अतः ऐसा साधक स्वयं में संवेग लक्षण प्रकट करके अप्रतिविरत (आसक्ति से अविरत) होते हुए भी देवायु का बंध करता है अर्थात् देवगति में पुनर्जन्म प्राप्त करता है।