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४८ : पंचलिंगीप्रकरणम्
कइया होइ सो वासरुत्ति गीयत्थगुरुसमीवंमि। सव्वविरयं पव्वज्जिय विहरिस्सामि अहं जम्मि ।। २५ ।।
कदा भविष्यति सर्वविरतिं प्रपद्य
स वासरः विहरिष्याम्यहं
गीतार्थगुरुसमीपे । यस्मिन् ।। २५ ।।
कब होगा वह दिन जब मैं, गीतार्थ गुरु के समीप। सर्वविरति-संयम धारणकर विचरूंगा, और बनूंगा आत्मप्रदीप।। २४ ।।
२५. वह दिन कब होगा (आएगा) जिसदिन मैं गीतार्थ (आगमशास्त्रज्ञानी) गुरु के समीप (की निश्राय में) सर्वविरतिरूप श्रमणचारित्र को धारणकर (ग्रहणकर) विहार करूंगा? __यहाँ शास्त्रकार मुमुक्षु पाठक की उस भावना का उल्लेख करते हैं जिसका उदय सांसारिक सुखों के पीछे भागने में अंततोगत्वा दुःख ही प्राप्त होने का बोध होने के पश्चात् व इस असार संसार से मुक्ति पाने की इच्छा के साथ होता है। अतः वह शास्त्रज्ञानी व उसे सही मुक्तिमार्ग दिखलाने की क्षमता वाले गुरु के पास शीघ्रतिशीघ्र प्रव्रजित होने की भावना भाता है।
गीतार्थगुरुसमीपे = बहुश्रुतविहिताचार्यसमीपे। - देखें 'पंचलिंगीप्रकरणम्' पर वृहद्वृत्ति, पृ. ६३। सर्वविरतिं = भगवतीं भावदीक्षाम्। जैन परंपरा में प्रचलित दीक्षा अर्थात् प्रवृज्याग्रहण। छंद की दृष्टि से 'विहरिष्याम्यहम्' को 'विहरिष्यामि अहम्' के रूप में पठनीय है।