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४६ : पंचलिंगीप्रकरणम्
पिहियासवा तवड्डा धणियं
किरियासु संपउत्ता उ । रागदोसविउत्ता भवतरु
निसियासिणो धीरा ।। २४ ।।
पिहितानवाः तपाढ्या धणितं क्रियासु सम्प्रयुक्तास्तु। रागद्वेषवियुक्ता भवतरु-निशितासयः धीराः ।। २४ ।।
आम्रवरुद्ध संवरसाधक, तपोधनी, क्रियाओं में सतत निरत। वीतराग-द्वेष, भवतरुछेदक तीक्ष्णकृपाणसम धीरसाधु होते विरत।।२४।। २४. संवर द्वारा कर्मानव को रोकने वाले, तपरूप धनवाले तपोधनी, अपने सम्यक्चारित्र के पालन में तत्पर श्रमणाचार की क्रियाओं के पालन में सदैव रत रहते हुए भी जो राग-द्वेष से रहित होकर वीतराग हैं, ससार रूपी वृक्ष को काटने के लिये जो तीक्ष्ण तलवार के समान हैं, ऐसे धीर (साधु) पुरुष होते हैं जो (मोक्ष-मार्ग की साधना में सतत प्रयत्नशील रहते हैं)।
भावार्थ : यहाँ शास्त्रकार यह कहना चाहते हैं कि संवर, तप व चारित्र संपदा से युक्त धैर्यवान साधुपुरुष ही संसार में रहते हुए भी संसार से निरपेक्ष रहकर राग और द्वेष से मुक्त होकर संसार रूपी वृक्ष को काटकर मुक्ति की ओर अग्रसर होने में समर्थ हो पाते हैं। अतः साधक को अपने चरित्र में इन गुणों का विकास करने के लिये सतत प्रयत्नशील रहना चाहिये।