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४४ : पंचलिंगीप्रकरणम्
अक्खयमकिलेससाहणमलज्जणीयं विवागसुंदरीयं। परमसुहमिमाहितो ताणतेहिं संगुणियं ।। २२।। मुक्खस्स सुहं ता तस्स साहणे इद्दहुज्जमो जुत्तो। धन्न तिम्विय परमत्थसाहगा साहुणो निच्चं ।। २३ ।।
अक्षयमक्लेशसाधनमलज्जनीयं . विपाकसुन्दरम् । प्रशमसुखमस्मादनंतानन्तैः सङ्गुणितम् ।। २२ ।। मोक्षस्यसुखं तस्मात् तस्य साधने इदानीमुद्यमो युक्तः । धन्या त्रिविधपरमार्थसाधकाः साधवः नित्यम् ।। २३ ।।
अक्षय, अक्लेशसाध्य, अलज्जनीय, और विपाक में सुन्दर। ऐसा तो प्रशमसुख है, उससे भी अनन्तगुण है मोक्ष सुखकर ।। २२ ।।
इसलिये मोक्षसुख के लिये प्रयत्न करना है युक्त। ऐसे परमार्थसाधक हैं सदा धन्य, और वे ही होते हैं मुक्त ।। २३ ।।
२२-२३. मोक्षसुख अक्षय, अकष्टसाध्य, अलज्जनीय और विपाक में सुन्दर (परिणाम में सुख विपाक वाले) प्रशमसुख से भी अनन्तगुणा सुख देनेवाला है। अतः वर्तमान में मोक्षसुख की प्राप्ति के लिये प्रयत्न करना उपयुक्त है, क्योंकि वही वास्तविक सुख है (अन्य सुख तो मात्र सुखाभास हैं)। वे परमार्थसाधक साधु धन्य हैं जो सदा तीन प्रकार से (दर्शन, ज्ञान, चारित्र से) उस (मोक्षसुख) की साधना करते हैं।