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२० : पंचलिंगीप्रकरणम्
उसका उपशम ही कहलाता सम्यक्त्वलिंग जो नियम से सबको होता ज्ञात। जिसके बिना महाबल और पीठ-महापीठ हुवे स्त्रीबंधक विख्यात ।।८।। इसी कारण से शांत-मिथ्यादृष्टि होकर भी मिथ्याभिनिवेश से ही । जमालि, गोष्ठामाहिलादि भी सभी ‘निन्हव' रूप हुवे कुख्यात ।। ६ ।। ८-६. जहाँ अतत्त्वरुचिरूप - कुदेव, कुगुरु, कुशास्त्र पर श्रद्धा व अनियमित आचरण - मिथ्यात्व का लेश भी न हो तथा जिसके असत्-अशोभन - सर्वज्ञवाणि के प्रतिकूल कार्यकलाप न हों व मिथ्याभिनिवेशक व्यापार - कुदेव, कुगुरु की पूजा-अर्चना, उत्सूत्र प्ररूपणा आदि - न हों ऐसे मिथ्याभिनिवेश के उपशम को ही सम्यक्त्वलिंग कहा जाता है न कि अनन्तानुबन्धी कषाय का; यह तथ्य कालानुक्रम से सभी भव्यात्माओं को नियम से ज्ञात हो जाता है। मिथ्यात्व के पूरी तरह शांत हो जाने पर भी मिथ्याभिनिवेश (मिथ्याज्ञान के प्रति अभिनिवेश या आग्रह) बना रहता है। इसी कारण से महाबल, पीठ-महापीठ को स्त्री-नामकर्म का बंध हुवा तथा जमालि, गोष्ठामाहिल आदि को निन्हवत्व प्राप्त हुआ।
यहाँ शास्त्रकार एक बार पुनः मिथ्यात्व के अतत्त्वरुचि स्वरूप पर जोर देकर उसी से मिथ्याभिनिवेश व असद्ग्रहण का होना बताते हैं तथा उसके उपशम को ही सम्यक्त्वलिंग कहते हैं न कि अनंतानुबंधीकषाय के उपशम को। वे यह भी कहते हैं कि मिथ्यात्व के शांत होने पर भी मिथ्याभिनिवेश बना रह सकता है तथा उसके कारण अपलापरूप (एक आचार्य के पास अध्ययन करके अन्य को अपना गुरु बताना अपलाप है अथवा मैं नहीं जानता आदि कहकर शास्त्र का गोपन करना भी अपलाप है)' निहूनवत्व (भगवद्वचनों के विपरीत श्रुत प्रतिपादन निन्हवत्व है)२ व तज्जन्य स्त्री-नामकर्म का बंध होना बताते हैं जो कि निन्हवों के उदाहरणों से स्पष्ट है।
क. 'कस्यचित्सकाशे श्रुतमधीयत्यायात्यो गुरुरित्याभिधानमपलापः।'
- भगवती आराधना, ११३.२६६.४. ख. 'कृतश्चितकारणान्नास्ति न वेद्यतीत्यादि ज्ञानस्य व्यपलपनम्।'
- सर्वाथसिद्धि, ६.१०.३२७.११. एकद्वयादि भगवद्वचनारोचकीनां श्रुते निन्हव संज्ञा ।'
- पंचलिंगीप्रकरण, वृहद्वृत्ति, पत्र-११.