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३४ : पंचलिंगीप्रकरणम्
ता ताण कए दुःखसयनिबंधणं,
भयइ आरंभमह परिग्गहमओ वि,
बहुविहं जीवो ।
बंधो वि पावाणं ।। १७ ।।
तस्मात् तेषां कृते दुःखशतनिबन्धनं भजते बहुविधं जीवो। आरम्भमथ परिग्रहमपि बन्धोऽपि पापानाम् ।। १७ ।।
उस सुखाभास की ख़ातिर जीव, सैकड़ों दुःखों को भी नहीं नकारता । आरम्भ परिग्रहमय होकर वह पापों के बन्ध भी स्वीकारता ।। १७।।
१७. वह (जीव विचित्र है जो) उन विषयों के सैंकड़ों दुःखों को अनेक प्रकार से स्वीकार करता है, तथा आरंभ और महान परिग्रह (विविध वस्तुओं का संग्रह) करके पापकर्म का बन्ध करता है।
भावार्थ : यहाँ शास्त्रकार इस विडम्बना की ओर इशारा करते हैं कि दुःख में भी सुख जताने के कारणभूत उन विषयों के लिये जीव अनेक प्रकार के कायिक, मानसिक आदि दुःखों के कारणभूत व्यापार, वाणिज्य आदि आरम्भ और संग्रह आदि करके परिग्रहमय होकर पापों के बन्धनों को भी स्वीकार करता है।