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३२ : पंचलिंगीप्रकरणम्
हा धी विलीणबीभस्सकुस्सणिज्जम्मि रमइ अंगम्मि। किमिकव्व एस जीवो, दुहं पि सुखंतिमन्नंतो ।। १६ ।।
हा! धिक् कृमिवच्च एष
विलीनबीभत्सकुत्सिते रमतेऽङ्गे। जीवः दुःखमपि सुखं मन्यते ।। १६ ।।
धिक्कार ! कि दुर्गन्धित-बीभत्स-हेय अंगों में,
रमण करता जीव निरन्तर। कृमिसम दुःख को भी,
सुख मानने को सदा तत्पर ।। १६ ।।
१६. अरे धिक्कार है! कि यह जीव सतत प्रवाहित दुर्गन्धित (मवाद, पीव, प्रदर - श्वेत पानी, आदि से), बीभत्स (जुगुप्सनीय या घृणित) व कुरूप (देखने में असुन्दर) ऐसे (जनन)अंग में कीटवत् दुःख को भी सुख मानता हुआ रमण (संभोगक्रीड़ा) करता है।
भावार्थ : शास्त्रकार इंद्रिय-विषयों (भोग-विलास) की वास्तविकता की
ओर इंगित करते हुए कहते हैं कि यह जीव 'विलीन' अर्थात् निरन्तर नवण-प्रसवण से दुर्गन्धित, 'बीभत्स'-घृणास्पद, 'कुत्सनीय'-निन्दनीय ऐसे अंगों में रमण करता है। कृमि जिस प्रकार व्रण में रमता है उसी प्रकार कृमिक के समान ही यह जीव भी दुःख (कष्टकारी संभोग) को सुख मानता है। (अर्थात् वह मृगतृष्णा में जल की आशा में भ्रमित के समान स्त्री अंगों से प्राप्त दुःख में भी सुख मानता है।)