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४० : पंचलिंगीप्रकरणम्
विसयासासंदामियचित्तो
विसयेहिं
विप्पउत्तोवि ।
परिभमइ कंडरीओव्व
नियमओ घोरसंसारे ।। २०।।
विषयाशया परिभ्रमति
संदामितचित्तो विषयैः विप्रयुक्तोऽपि। कण्डरीकरिव नियमतो घोरसंसारे ।। २०।।
विषय दूर अप्राप्य विषयों से आशन्वित चित्त भी दुःखदायी अतिभारी । बंधा विषयों से 'कण्डरीक' सम भ्रमता जीव बन घोर-संसारी।। २०।।
२०. विषयभोग की आशा से संदमित (पशुवत् आशाओं के पाश में झकड़ा हुआ) चित्तवाला व्यक्ति विषयों से दूर होते हुए भी ‘कण्डरीक' नामक राजा के समान निस्संदेह घोर-संसार (अति भीषण नरकादि गतियों) में भटकता रहता है। .
भावार्थ : विषयभोग तो दूर, विषयभोगों की आशा, उनकी इच्छा, उनकी लालसा भी अत्यंत दुःखदायी है। जिसप्रकार रस्सी से बंधा हुआ पशु दुःखी होता है, वैसे ही गोंग-तृष्णा से बंधे हुवे चित्त वाला व्यक्ति विषयों के अप्राप्त होने पर भी, उनका भोग नहीं कर पाने पर भी क्लेश को प्राप्त होता है, तथा कण्डरीक राजा के समान संसार-सागर में रुलता रहता है।