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२४ : पंचलिंगीप्रकरणम्
गिहिदिसिबन्धो तह णो हवंत, अवहरणमच्छरो गुणिसु । अववायपयालंबण, पयारणं मुद्धधम्माणं ।। ११ ।। सढयाए समाइन्नं एयं, अन्नं च गीयपडिसिद्धं । तत्तंसज्जाणतबहुमाणा उ असग्गहो होइ।। १२ ।। युग्मं ।।
गृहिदिग्बंधः तथा न भवन्तोऽपहरणमत्सरो गुणिषु । अपवादपदालम्बनं प्रतारणम् मुग्धधर्मिणाम् ।। ११ ।।
शठतया समाचीर्णमेतदन्यच्च गीतप्रतिषिद्धम् । तत्त्वं सद्ज्ञानबहुमानवंतः तु असद्ग्रहः भवति ।। १२ ।।
गृहियों को देते उपदेश, गुण्योपहरण का मात्सर्य व मिथ्याचार। अपवादालंबन व धर्ममुग्धों को मृषोपदेश शठता का व्यवहार ।। ११ ।।
मायावृत्त निषिद्धतत्त्व-गीतार्थ तो करते अपने ज्ञान का अभिमान। ऐसा करना भी तो निश्चित ही, असद्ग्रह होता है - जान ।। १२ ।।
११-१२. श्रावकों को उपदेश देने वाले आचार्य वैसा करते हुए यदि गुणी श्रावकों को अन्य मार्ग से अपने मार्ग में लाने हेतु अपहरण करते हैं तो वह गुणियों के प्रति मात्सर्य है, और धर्म के प्रति मोहित हुए व्यक्तियों को अपवाद पदों का आलम्बन करवाना ठगी करना है। दूसरे, माया से आवृत्त गीतार्थों के द्वारा निषिद्ध तत्त्व और सद्ज्ञान के अभिमान से युक्त होना तो असद्ग्रह है।