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२२ : पंचलिंगीप्रकरणम्
ता
सुत्तुत्तविउत्ता
गीयत्थनिवारिया अणाइन्ना । चिच्चा मिच्छाभिनिवेससाहिगा
सो उ मिच्छस्स ।। १०।।
तत् सूत्रोक्तवियुक्ताः गीतार्थनिवारिता अनाचीर्णा । चेष्टा मिथ्याभिनिवेशसाधिका स तु मिथ्यात्वस्य ।। १०।।
वह सूत्रोक्त अर्थ से हीन गीतार्थ-निषिद्ध और अनाचीर्ण । मिथ्याभिनिवेशसाधक चेष्टा तो हैं निश्चित मिथ्यात्व का लक्षण।। १० ।।
१०. वह मिथ्याभिनिवेशसाधिका चेष्टा (अर्थात् मिथ्याभिनिवेशी की कायिक व वाचिक क्रियाएँ) सूत्रोक्तवियुक्त, गीतार्थ-निवारित' व अनाचीर्ण है। ऐसी चेष्टाएँ तो मिथ्यात्व की साधक ही होती हैं।
यहाँ शास्त्रकार मिथ्या आचार-व्यवहार में लगे हुवे साधकों पर कटाक्ष करते हुवे कहते हैं कि जो साधक सूत्रोक्त अर्थ से रहित हैं, श्रुतपारगत गीतार्थों के विरुद्ध आचरण करते हैं, अनाचारी हैं व मिथ्याभिनिवेशसाधक चेष्टाओं में निमग्न रहते हैं, वे सम्यक्त्व से युक्त होते हुवे भी उनकी चेष्टाएँ मिथ्यात्व की साधक ही होती हैं।
गीतार्थ - गीतं - सूत्रं अर्थस्तदभिधेयं तपोर्योगाद्गीतार्थः; आह च - ‘गीयं भन्नइ सुत्तं अत्थो तस्सेव होइ वक्खाणं।'
- प. वृ. पत्रक ५२. गीतार्थनिवारिता - आगम अर्थ से विपरीत होने से श्रुतपारगियों के द्वारा कर्तव्य रूप से मिथ्याभिनिवेशी चेष्टा निषिद्ध है।
- वही. अनाचीर्ण - 'सावद्यतया गीतार्थ राख्रणीयतयाऽनादृता।
- वही.