________________
२८ : पंचलिंगीप्रकरणम्
द्वितीयलिंग : संवेग
सम्मदिट्ठी जीवो, कम्मवसा विसयसंपउत्तो वि। मणसा विरत्तकामो, ताण सरूवं विचिंतेइ ।। १४ ।।
सम्यग्दृष्टिः जीवः, कर्मवशात् विषयाः संप्रयुक्तोऽपि । मनसा विरक्तकामस्तेषां स्वरूपं विचिन्तयति ।। १४ ।।
सम्यग्दृष्टि-जीव यदि कर्मवश, विषय-भोग करे तो भी । मनसे रहे विरक्त और, करे स्वरूप-चिंतन उनका ही ।। १४ ।।
१४. सम्यग्दृष्टि जीव कर्म के उदय से विषयों में आसक्त व प्रवृत्त होता हुआ भी मन से विरक्तकाम रहता है क्योंकि वह विषयों के स्वरूप का विचार (चिंतन) करता है।
भावार्थ - मिथ्याभिनिवेश के उपशम से जिसका सम्यक्त्व प्रतिष्ठित है ऐसा भव्य-सत्व - सम्यग्दृष्टि-जीव - यदि चारित्रमोहनीय कर्मवशात् विषय-भोग करता है तो भी ऐसा करते हुए भी वह मनसे सदा विरक्त रहता है और उनके वास्तविक - भव भ्रमणकारी - स्वरूप का ही चिंतन करता रहता है ।