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XXX : पंचलिंगीप्रकरणम्
होने वाले दुःखों का चिंतन करता है; वह न केवल पूर्वजन्मों व वर्तमान में भोगे जा रहे दुःखों का अपितु भविष्य के दुःखों का भी चिंतन करता है। वह आत्मिक संदर्भ में सांसारिक संबंधों व ऐहिक जीवन की निरर्थकता को अनुभव करता है तथा वह सांसारिकता के प्रति विरक्त और उदासीन हो जाता है। यह विरक्ति और उदासीन वृत्ति उसकी हर क्रिया में परिलक्षित होती है। संसार में रहते हुवे वह वह सब-कुछ करता है जिसकी उससे अपेक्षा की जाती है किंतु केवल कर्तव्य-भावना वश, न कि उसमें आसक्त होकर स्वेच्छापूर्वक। यह उदासीन-वृत्ति एवं विरक्ति ही सम्यक्त्व का तीसरा लक्षण है।
अनुकम्पा -
अनुकम्पा या दीन-दुःखियों के प्रति संवेदना या करुणा का भाव तथा उनके कष्ट-निवारण में तत्परता का होना सम्यक्त्व का चौथा लक्षण है। वह साधक जो अनुकम्पा भाव से आपूरित है वह न केवल उनके दुःख-दर्द से दुःखी होता है अपितु वह उनके दुःखों को दूर करने के उपाय भी करता है। साथ ही वह इस बात से भी अवगत होता है कि संसारिक जीवन में रहते हुवे कर्म-बंधनों के कारण उसकी स्वयं की आत्मा भी कितने दुःख में है तथा जहाँ वह सांसारिक दृष्टि से परदुःखकातर होता है वहीं आध्यात्मिक दृष्टि से स्वदुःखकातर भी होता है। आस्तिक्य -
___ अंततः सम्यग्दृष्टि साधक को उसके आत्मा के अस्तित्व व सर्वज्ञ जिनेश्वर प्रतिपादित सद्धर्म में दृढ़ व अडिग श्रद्धा से पहचाना जा सकता है। उसे नौ तत्त्वों, अधोलोक की सात नरक भूमियों, स्वर्गलोक के देवविमानों, मध्य-लोक के मनुष्य व तिथंच तथा प्राणीमात्र के चरम लक्ष्य रूप सिद्धशिला के अस्तित्व में पूर्ण विश्वास होता है। यह दृढ़ विश्वास ही उसे सही रास्ते पर रखता है तथा उसे मोक्ष-मार्ग का दृढ़ता पूर्वक अनुसरण करते हुवे संसार-मुक्त होकर सिद्ध-शिला पर स्थित सिद्धलोक में पहुंचने की इच्छाशक्ति प्रदान करता है।