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आमुख : XXXIX
लक्षण है, अनन्तानुबंधी कषाय का नहीं।' शास्त्रकार के अनुसार मिथ्याभिनिवेशक चेष्टा सूत्रविरुद्ध, गीतार्थों के विपरीत, अनाचीर्ण व मिथ्यात्वसाधिका है। गुणियों का अपहरण, अपवादपदों का आलम्बन, सज्ञान का अभिमान, गीतार्थनिषिद्ध तत्त्व का ग्रहण व धूर्ततापूर्वक
अपने पक्ष को सिद्ध करने की युक्तियाँ असद्ग्रह हैं तथा जनरंजन के लिये की जाने वाली क्रियाएँ सम्यक्त्व की बोधक नहीं होती हैं। संवेगलिंग : ग्रंथ की चौदहवीं से बत्तीसवीं गाथाओं में संवेग नामक द्वितीय
सम्यक्त्वलिंग का विवेचन किया गया है। प्रारंभ में ही बताया गया है कि सम्यग्दृष्टि जीव कर्मवशात् विषयासक्त होते हुए भी उनका स्वरूपचिंतन करने से मन से विरक्ति का इच्छुक होता है। विषय भोगते समय सुखकर होते हुए भी अंततः दुःखदायी होते हैं। इस विषयेच्छा के वशीभूत होकर जीव कीटवत् मल-मूत्रद्वार में क्रीड़ारत होता है तथा आरंभ, परिग्रह, आदि के लिये अनेक कष्टों को भोगता है व पापबंध भी करता है जिससे उसे नरक-तिर्यंच गतियों में अनेक दुःख भोगने पड़ते हैं। विषयों की हेयता का प्रतिपादन करते हुए कहा है कि यदि विषय उपादेय होते तो चक्रवर्ती, बलदेव, आदि महापुरुष उनका त्याग क्यों करते? विषयों की तो इच्छा मात्र ही भवभ्रमणकारी है। मोक्षसुख के लिये प्रयत्न करना चाहिये क्योंकि वह प्रशमसुख से भी अनन्तगुण सुखकारी है। इसीलिये साधुपुरुष आम्रवरोधी व
वही, ३. वही, १०. वही, ११-१३. वही, १४. वही, १५. वही, १६-१८. वही, १६-२०. वही, २२-२३.