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XLIV : पंचलिंगीप्रकरणम्
सुविहित साधुओं के लिये वर्तमान बाधाओं को अपनी बुद्धि व शक्ति
से दूर करें। अणहिलपुर में चैत्यवासियों का बहुत जोर होने से उन्हें ठहरने के लिये
स्थान भी कठिनाई से मिला फिर भी वहाँ के राजपुरोहित के माध्यम से वहाँ के राजा दुर्लभराज में उनके गुणों से प्रभावित होकर एक उपाश्रय बनवाने का आदेश दिया। संभवतः उसी समय से वसतियों या
उपाश्रयों की परंपरा का प्रारंभ हुवा।' चैत्यवासियों के प्रभाव में जनविरोध के बीच अंततः विक्रम संवत १०८० में
वर्द्धमानसूरि व चैत्यवासियों के बीच राजा दुर्लभराज के समक्ष शास्त्रार्थ होना निश्चित हुवा। जिसमें वर्द्धमानसूरि की ओर से जिनेश्वरसूरि ने शास्त्रार्थ कर चैत्यवासी सुराचार्य को परास्त किया। जिनेश्वरसूरि के पक्ष से सहमत होते हुए राजा ने कहा, "जिनेश्वरसूरि का पक्ष खरा"। तभी से उनका समुदाय खरतरगच्छ के नाम से जाना जाने लगा व
जिनश्वरसूरि उसके आधाचार्य हुवे। जिनेश्वरसूरि का कालनिर्णय : जिनेश्वरसूरि के जन्म व स्वर्गवास की
तिथियों उपलब्ध नहीं होने से उनके काल का सही निर्णय कर पाना तो संभव नहीं है किंतु निम्न उपलब्ध प्रमाणों के आधार पर यह अनुमान अवश्य लगाया जा सकता है कि वे विक्रम की ग्यारहवीं शताब्दि के द्वितीय चतुर्थांश से विक्रम की बारहवीं शताब्दि के प्रथमांश के बीच हुवे होगेः - १. अपनी युवावस्था में आचार्य वर्द्धमानसूरि के पास दीक्षित होकर
उन्होंने आचार्यपद प्राप्त कर वि. सं. १०८० में चैत्यवासी सुराचार्य के साथ अपने काल का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण धर्मिक वाद-विवाद किया था, अतः उनकी दीक्षा उनके जीवन के तीसरे दशक में
युगप्रधान आचार्य जिनदत्तसूरि . . ., पृ. २६. वही, पृ. ३१-३३.
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