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XLIL : पंचलिंगीप्रकरणम्
आवश्यकता पर बल देते हैं, तथा जैन मुनियों के लिये कुवें, बावड़ी, तालाब, आदि खनन करवाने व कृषि, पशुपालन, आदि व्यवसाय करने, दानशालाएँ खुलवाने और राजनीति, ज्योतिष, धातुवेध, धनुर्वेद आदि के उपदेश न देने की मर्यादा बतलाते हैं।' इस भाग का समापन करते हुए शास्त्रकार कहते हैं कि इस प्रकार के अनुकम्पा-परिणाम .
वाला जीव सम्यग्दृष्टि होता है। आस्तिक्यलिंग : ग्रंथ की ७५वीं से १००वीं गाथाओं में पंचम सम्यक्त्वलिंग - आस्तिक्य का विवेचन किया गया है। इसमें आत्मा के अस्तित्व पर आस्था रखना आवश्यक बताया गया है। बौद्ध क्षणिकवाद व आलय विज्ञानवाद का निरसन करते हुए शास्त्रकार कहते हैं कि इससे कर्ता
और भोक्ता के भिन्न-भिन्न होने का प्रसंग उपस्थित होता है जो कि युक्तिसंगत नहीं है। एकात्मवाद का निरसन करते हुए प्रत्येक प्राणिशरीर के लिये एक भिन्न आत्मा का होना व उसका स्वदेहप्रमाणत्व सिद्ध किया गया है। इसके अतिरिक्त धर्म, अधर्म, आकाश, काल, व पुद्गल रूपी अजीव तत्त्व के अस्तित्व को प्रमाणित किया गया है। आगे की गाथाओं में पुण्य-पाप, आसव, संवर, निर्जरा, बंध” व षड्दर्शनाभिमत मोक्ष की अवधारणा का निरूपण
वही, ६५-७२, ७५-७६. वही, ७७. वही, ७८. वही, ७६-८१. वही, ८२-८३. वही, ८४-८५. वही, ८६. वही, ८७-६०.
वही, ६१.
६२. वही, ६३. वही, ६४-६८.