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XLVI : पंचलिंगीप्रकरणम्
हरिभद्रसूरि (याकिनीसूनू हरिभद्रसूरि नहीं), प्रसन्नचन्द्र, धर्मदेवगणि, सहदेवगणि, सुमतिगणि, आदि उनके अनेक विद्वान् व मेधावी शिष्य
थे।
आचार्य जिनेश्वरसूरि का स्वर्गवास कब हुआ यह निश्चित नहीं हैं किंतु
उनके द्वारा वि.सं. ११०८ में रचित 'कथाकोषप्रकरणवृत्ति' व वि.सं. १११२ में रचित 'चैत्यवंदनविवरणवृत्ति' प्राप्त है, अतः उन्होंने इसके
बाद ही अपनी नश्वर देह का त्याग किया होगा ऐसा अनुमान है। उपसंहार -
इस प्रकार हम देखते हैं कि 'पंचलिंगीप्रकरण' जैनदर्शन में प्रतिष्ठित सम्यग्दर्शन के पॉच बाह्य सूचकों (लिंगों) का विशद विवेचन करने वाला ग्रंथ है। इसके अध्ययन-मनन से जिनधर्म के अनुयाईयों में सम्यक्त्वबोध होकर सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होगी ऐसी आशा करनी चाहिये।
- डॉ. (कर्नल) दलपतसिंह बया 'श्रेयस' 'नीड़', ई-२६, भूपालपुरा, उदयपुर -३१३ ००१ (राजस्थान) मकर संक्रान्ति, १४ जनवरी, २००६.
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वही, पृ. ३५.