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आमुख : XLIII करते हुए सिद्धात्मा के लक्षणों का अनन्त ज्ञेयपदार्थज्ञान व अनन्तज्ञान में भेद करते हुए प्रतिपादन किया गया है ।'
उपसंहार : ग्रंथ का उपसंहार करते हुए शास्त्रकार कहते हैं कि इन सम्यक्तवलिंगों से परिणत भावना से युक्त जीव सम्यग्दृष्टि होते हैं अतः ये लिंग अपने साध्य (सम्यक्त्व) से अविनाभावी हैं।
ग्रंथ का व्याख्या साहित्य : पंचलिंगीप्रकरण पर आचार्य जिनपतिसूरि द्वारा विरचित संस्कृत वृहद्वृत्ति प्राप्त है ।
ग्रंथकार श्रीमज्जिनेश्वरसूरि
जन्म और प्रारम्भिक जीवन : आचार्य जिनेश्वरसूरि के जन्म संवत् की निश्चित जानकारी उपलब्ध नहीं है। प्रभावकचरित के अनुसार वे मध्यदेशवासी ब्राह्मण कुल के थे, उनके पिता का नाम कृष्ण था, उनका गार्हस्थकाल का नाम श्रीधर था तथा उनके अनुज का नाम श्रीपति था। दोनों भाई बड़े मेधावी थे । एकदा वे देशटन करते हुए धारा नगरी पहुंचे। वहाँ के धर्मनिष्ठ श्रेष्ठि लक्ष्मीपति के माध्यम से उनका परिचय तात्कालीन प्रभावक आचार्य वर्द्धमानसूरि से हुआ ।
आचार्य भी दोनों मेधावी भाईयों से अत्यंत प्रभावित हुए। दोनों भाई आचार्यश्री के पास आने लगे व वैराग्य प्राप्त कर उनके पास दीक्षित होगए । वर्द्धमानाचार्य नें उनकी योग्यता देखकर दोनों को आचार्यपद प्रदान किया तथा चैत्यवासियों के मिथ्याचार का प्रतिकार करने के लिये प्रेरित किया और आदेश दिया कि वे अणहिलपुर पत्तन जाकर
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२ वही, १०१.
साध्वी, डॉ. स्मितप्रज्ञाश्री, युगप्रधान आचार्य जिनदत्तसूरि का जैनधर्म एवं साहित्य में योगदान, विचक्षण समिति प्रकाशन, अहमदाबाद, १६६६, पृ.
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वही, ६६-१००.
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२७-३६.
प्रभावक चरित, पृ. १६२.