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आमुख : XXXVII
५. परपाषंड-संस्तव (परदर्शन का परिचय) - जब हम किसी वस्तु, व्यक्ति या विचार के निरंतर संपर्क में आते रहते हैं तो अक्सर अपरिपक्व मस्तिष्क में उनके प्रति गुण-दोषों का आकलन किये बिना ही आकर्षण पैदा होने लगता है। बहुत पुरानी कहावत है - 'परिचय से प्रगाढता बढती है। अतः हम किस प्रकार के व्यक्तियों व विचारों से परिचित होते हैं इस बारे में हमें अत्यंत सावधान रहना चाहिये। मिथ्यादर्शनों से परिचय से सम्यक्त्व की हानि होकर स्वयं की दृष्टि विकृत होने की ही संभावना बनती है, अतः ज्ञानियों ने अपरिपक्व साधकों के लिये अन्य दर्शनों से परिचय में सावधानी बरतने का आदेश दिया है। इसका एक और पक्ष भी है - व्यक्ति अपने साथियों से जाना जाता है, उसकी प्रतिष्ठा या निंदा में उसके संगी-साथियों का भी बहु बड़ा हाथ होता है। अतः इस लौकिक कारण से भी मिथ्यादर्शनियों से संपर्क रखना त्याज्य है।
अंत में सम्यग्दर्शन के बारे में यही कहना उचित होगा कि 'सम्यग्दर्शन की प्राप्ति तीन लोक के ऐश्वर्य से भी अच्छी है।"
पंचलिंगीप्रकरणम् : समीक्षात्मक परिचय सामान्य परिचय : 'पंचलिंगीप्रकरणम्' सम्यक्त्व के पाँच लिंगों का विवेचन
करने वाला खरतरगच्छ के आधाचार्य श्रीमज्जिनेश्वरसूरि द्वारा विरचित एक अद्भुत ग्रंथ है जिसमें गाथा संख्या १ में सम्यक्त्व के पाँच लिंगों का नामनिर्देश किया गया है; गाथा संख्या २ से १३ तक उपशमलिंग पर, गाथा संख्या १४ से ३२ तक संवेगलिंग पर, गाथा संख्या ३३ से ५२ तक निर्वेदलिंग पर, गाथा संख्या ५३ से ७७ तक अनुकम्पालिंग पर, व गाथासंख्या ७८ से १०० तक आस्तिक्यलिंग पर गहन विश्लेषणात्मक चिंतन किया गया है।
' शिवार्य, भगवती आराधना, ७४२.