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आमुख़ : XXXV
३. भक्ति सम्यग्दृष्टि साधक - श्रावक को सदैव धर्म के तीन स्तंभों देव (धर्म-प्रवर्तक जिनेश्वर - देव, तीर्थंकर - देव), गुरु ( वर्तमान में धर्मोपदेश देने वाले श्रमण) व धर्म ( जिन - प्रतिपादित धर्म) के प्रति श्रद्धा व भक्ति-भाव से ओतप्रोत रहना चाहिये ।
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४. कौशल - सम्यग्दृष्टि साधक-श्रावक को धर्म-सिद्धान्तों का पूर्ण ज्ञान अर्जित करना चाहिये ताकि कभी भी कहीं भी धर्म पर कोई आक्षेप किया जाय तो उसका सम्यक् प्रतिवाद किया जा सके । तथा ५. तीर्थसेवा
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सम्यग्दृष्टि साधक - श्रावक को धर्म - तीर्थ के चारों अंगों साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका की समुचित सेवा देखभाल करनी चाहिये ताकि किसी के मन में कभी भी ग्लानि या अरति का भाव पैदा न हो ।
इन पॉच साधनों द्वारा सम्यग्दर्शन को न केवल प्रोत्साहन मिलता है अपितु उसकी संरक्षा - सुरक्षा भी होती है ।
दूसरे वे पाँच कारण जिनसे सम्यग्दर्शन की हानि होती है, वे हैं १. शंका जिन - वचनों पर शंका व अविश्वास सम्यग्दर्शन को मलिन करते हैं। कई बार ऐसा होता है कि हम किसी चीज को समझ नहीं पाते हैं तथा उसकी सत्यता पर शंका और अविश्वास करने लगते हैं। श्रद्धा और विश्वास की दृढ़ता इसी में है कि ऐसे अवसरों पर हम सर्वज्ञ तीर्थंकरों के वचनों पर शंका करने के बजाय स्वयं के स्वल्प - ज्ञान की सीमा व नासमझी को ही दोष दें ।
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२. कांक्षा कांक्षा का अर्थ है सांसारिक भोगों की लालसा या उनके लिये लालायित होना । कई बार ऐसा होता है कि हम कुछ प्रलोभनों की ओर आकर्षित होते हैं तथा मिथ्या धर्म-दर्शनों के जाल में फॅस जाते हैं । सम्यग्दृष्टि साधक को हर क्षण इस प्रकार के प्रलोभनों से अपने आप को बचाने के प्रति सावधान रह कर