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उसी रूप में जाना है और कथन किया है । द्वितीय गाथा में कहा गया है कि बारह अंगों और चौदह पूर्धा के विपुल बिस्तार के वेसा गमक गुरु भगवान् श्रुतकेवली भद्रबाहु जयवंत हों ।
.. ये दोनों गाथाएं परस्पर में संबद्ध हैं। पहली गाषा में अपने मापको जिन भत्रबाह का शिष्य कहा है इसरो गाथा में उन्हीं का जयघोष किया है । यहां भद्रबाहु से अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाह ही ग्राह्य मान पड़ते हैं पयोंकि द्वादशा अंग मोर चतुर्दश पूर्वो का विपुल विस्तार उन्हीं से संभव था । इसका समर्थन समय प्राभृत के पूर्वोक्त प्रतिज्ञा वाक्य "वदित सम्वसिद"--में भी होता है। जिसमें उन्होंने कहा है कि मैं अतकवली के द्वारा प्रतिपादित समयमाभूत को वाहूँगा । अषणबेलगोला के अनेक शिलालेखों में यह उल्लेख मिलता है कि अपने शिष्य चन्द्रगुप्त के साथ भद्रबाहु यहां पधारे और वहीं एक गुफा में उनका स्वर्गवास हुप्रा । इस घटना को प्राज ऐतिहासिक तय के रूप में स्वत किया गया है।
राब विचारणीय बात यह रहती है कि यदि कुन्दकुन्द को अन्तिम श्रतकवनी भद्रवाह का भाक्षात शिष्य माना जाता है तो ये विक्रम शताब्दी से ३० वर्ष पूर्व ठहरते है और उस समय जत्रि. ग्यारह अंग चौर नाह पूर्वा के जानकार प्राचार्यों की परम्परा विद्यमान थी तब उनके रहते हा 'दक दरवामी की इतनी प्रतिष्ठा कैसे संभव है। नकती है और कैसे उनका अन्वय चल सकता है?स स्थिति में वृन्दान्दकी उनका पराग शिरा हो माना जा सकता है. साक्षात् नहीं । श्र नकेवली भद्रबाह के द्वारा उपदिष्ट नाव उन्हें गुरु परम्परा से प्राप्त रहा होगा. जी के प्राधार पर उन्होने अपने प्रापको भद्रबाह का शिद घोपित किया। बांध पाहिद के संस्कृत टीकाकार श्री श्रुतसागरमूरि ने भी "भद्रयासो सेरण" का अर्थ विपाखाचार्य कर कुन्दकुन्द को उनका परम्परा शिष्य ही स्वीकन निया है । श्रुतसागरमूरि की पत्तियां निम्न प्रकार है
भद्रबाहशिष्येण अहं बलिमुग्तिगुप्तापरनामतयेन विशाणाचार्य नाम्ना बशपूर्वप्रारिणामेकादशाचार्याणां माये प्रयमन ज्ञातम् ।
इन पंनियों द्वारा कहा गया है कि यहां भद्रवाई के शिष्य से विनावाचार्य का ग्रहा है। इन विधानाकार्य के गर्दन बलि और गुपितगुप्त ये दो नाम पौर भी हैं लथा ये दशपूर्व के धारक ग्यारह प्राचार्यों के मध्य प्रयम प्राचाय थे । गवाह अन्तिम श्रुतकेवलो धे जैमा नि तगागर सूरि ने ६२वी गाथा को टीका में कहा है
"पञ्चानां पतकेवलिनां मध्येऽन्त्यो भद्रबाह."
भर्यात भद्रवाह पांच श्रुतके वलियों में मन्तिम अ त केवली थे। प्रतः उनके द्वारा उपविष्ट तत्व को उनके शिष्य विशाखाचार्य ने जाना । उसी वी परम्परा अपये पलती रही । गमकाम का अर्थ श्रुतसागर सूरि ने उपाध्याय किया है सो विमानाचार्य के लिये यह विशेषण उचित ही है।