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कथा
पद्मनन्दी, कुन्दकन्दाचार्य, वऋग्रोवाचार्य, एलाचार्य और गृधपिच्छा वायं, इन पांचनामों से जो युक्त थे, चार अंगुल ऊपर प्राकाश गमन की ऋद्धि जिन्हें प्राप्त थो, पूर्व विवेह क्षेत्र के पुपरी किरणी नगर में जाकर श्रीमन्धर अपर नाम स्वयंप्रम जिनेन्द्र की जिन्होंने वन्दना की यो, उनसे प्राप्त श्रुतशान के द्वारा जिन्होंने भरत क्षेत्र के भव्य जीवों को संबोधित किया था जो जिनचन्द्र मूरिभट्टारककै पटके प्राभूषण स्वरूप घे तथा कलिकाल के सर्वश थे, ऐसे कुन्दकुन्दाचार्य द्वारा विरचिता परप्राभूत ग्रन्थ में।"
उपयुक्त उल्लेखों से साक्षात् सदंज देव की वाणी सुनने के कारण कुन्दकुन्द स्वामी को अपूर्व महिमा प्रस्थापित की गई है। किन्तु कुन्दकुन्द न्वानी के ग्रन्थों में उनके स्वमुख से कहीं विदेह गमन की चर्चा उपलब्ध नहीं होती । उन्होंने समयप्राभूत के प्रारम्भ में मिद्धों की वन्दनापूर्वक निम्न प्रतिजा की है
पंदित मन्त्र सिद्ध ध्रुवमचनमणोवमं गई पत्ते । वोच्छामि ममयपाहुमिणमो सुयकेवग्नी मणियं ।।१।।
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इसमें कहा गया है कि ने बत्तक दलों के द्वारा भगिन समयप्राभृन को कमा । यदापि "सुरके वलि भगिगय" इस पद को टीका में श्री अमृतचन्द्र स्वाम।। कहा है --नादिनिधनश्रप्रकाशतत्वेन, निखिरापंसाक्षात्कारकेबलिप्रगीतत्वेन, श्रुतकेवलिभिावर मनु भत्रभिरनिहितत्वेन च प्रमाग्गतामुपगतरय ।"
पर्थात् अनादिनिधन परमागम बाट वाम द्वारा प्रकाशन होने गे, तथा सब पदाकों के समूह का मक्षात करने वाले केवली भगवान् सर्वशदेव के प्रगान होने से प्रौर स्वयं अनुभव करने वाले श्रत केवलिया ग कहे जाने से जो प्रमाणता को प्राप है।
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तो भी इस कथन से यह स्पष्ट नहीं होता कि मैंने केवली की वारगी प्रत्यक्ष सुनी है अल: केवली इसके कर्ता हैं। यहां तो मूलका की अपेक्षा केवनी का उल्लेख जान पठता है । जय सेनाचार्य ने भी केवली का साक्षात् कर्ता के रूप में कोई जान्लेख नहीं किया है। उन्होंने 'गुगके वली भएिवं" की टीका इसप्रकार की है
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'श्र ते परमागमे के प्रतिभिः सर्वजणित धतकवलिमणित । अथवा भतकेवलिमाणितं गणधरकायत मिति ।'
अर्थात् धत- परमागम मे कवन-गवज्ञ भगवान के द्वारा कहा गया । अथवा भूतनेवली-गंगाधर के द्वारा कहा गया।
फिर भी देवसेन मादि के उल्लेख सर्वथा निराधार नहीं हो सकते । देवसेन ने,माचार्य परम्परा से जो चर्चाएं चलो पा रही थी उन्हें दर्शनसार में निबद्ध किया है। इससे सिद्ध होता है कि कुम्नकुन्द के विदेहगमन की पर्चा वर्णनसार की रचना के पहले भी प्रचलित रही होगी।